जब भी हम राधा रानी का नाम लेते हैं, तो हमारे हृदय में अपने आप भक्ति, प्रेम और समर्पण की भावना जाग उठती है, राधा रानी केवल भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी नहीं हैं, बल्कि आध्यात्मिक प्रेम की सर्वोच्च प्रतीक मानी जाती हैं।
कहा जाता है कि राधा रानी के बिना श्रीकृष्ण अधूरे हैं, और श्रीकृष्ण के बिना राधा रानी का अस्तित्व नहीं, राधा रानी, यानी हमारी श्रीजी, जिन्हें किशोरी जी के नाम से भी जाना जाता है, प्रेम का साक्षात रूप हैं और सृष्टि की हर शक्ति का आधार हैं।
लेकिन कई बार भक्तों के मन में यह सवाल उठता है: क्या राधा रानी को ‘मां’ कहा जा सकता है, जैसे हम मां सीता या मां रुक्मिणी कहते हैं? इस सवाल पर प्रेमानंद महाराज ने बड़ा ही सुंदर उत्तर दिया है।
प्रेमानंद महाराज कहते हैं कि रुक्मिणी जी श्रीकृष्ण की पत्नी हैं और उनके 10 पुत्रों का उल्लेख भागवत पुराण में मिलता है, इसलिए उन्हें ‘मां’ कहना स्वाभाविक है। सीता जी को भी माता कहा जाता है क्योंकि उन्होंने मातृत्व का अनुभव किया और अपनी मर्यादा का पालन करते हुए लोकमाता का स्थान पाया।
लेकिन राधा रानी के संदर्भ में शास्त्रों में कहीं भी संतान का उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी, उन्हें ‘मां’ कहना बिलकुल गलत नहीं है।
प्रेमानंद महाराज आगे कहते हैं –
“राधा रानी का स्वरूप प्रेममयी है, वे सृष्टि की प्रत्येक शक्ति का आधार हैं। देवी-देवता, शक्तियां, स्वरूप – सभी उन्हीं से प्रकट हुए हैं। इस दृष्टि से वे आदि शक्ति हैं, और जब सारी शक्तियां उन्हीं से निकलीं, तो उन्हें ‘मां’ कहना निषेध नहीं बल्कि स्वाभाविक भाव है।”
राधा रानी को ‘मां’ कहने का भाव प्रेम से उपजा है, न कि नियमों से, जो भक्त उन्हें किशोरी जी के रूप में पूजते हैं, उनके लिए वे प्रिय सखा हैं। और जो उन्हें माता के रूप में देखते हैं, उनके लिए वे करुणा और स्नेह की मूर्ति हैं, क्योंकि भक्ति में कोई बंधन नहीं होता, वहां भाव ही सर्वोपरि होता है।







